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मुख को छिपाती रही / महेन्द्र भटनागर

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धुआँ ही धुआँ है,

नगर आज सारा नहाता हुआ है !

अंगीठी जली हैं

व चूल्हे जले हैं,

विहग

बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !

निकट खाँसती है

छिपी एक नारी

मृदुल भव्य लगती कभी थी,

बनी थी

किसी की विमल प्राण प्यारी !

उसी की शक़ल अब

धुएँ में सराबोर है !

और मुख की ललाई

अंधेरी-अंधेरी निगाहों में खोयी !

जिसे ज़िन्दगी से

न कोई शिकायत रही अब,

व जिसके लिए

है न दुनिया

भरी स्वप्न मधु से

लजाती हुयी नत !

अनेकों बरस से

धुएँ में नहाती रही है !

कि गंगा व यमुना-सा

आँसू का दरिया

बहाती रही है !

फटे जीर्ण दामन में

मुख को छिपाती रही है !

मगर अब चमकता है

पूरब से आशा का सूरज,

कि आती है गाती किरन,

मिटेगी यह निश्चय ही

दुख की शिकन !

1951