भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुज़्दा-ऐ-ज़ौक़े-असीरी कि नज़र आता है / ग़ालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुज़्दा-ऐ-ज़ौक़े-असीरी कि नज़र आता है
दाम-ए ख़ाली क़फ़स-ए मुरग़-ए गिरिफ़तार के पास

जिगर-ए तिशनह-ए आज़ार तसलली न हुआ
जू-ए ख़ूं हम ने बहाई बुन-ए हर ख़ार के पास

मुंद गईं खोलते ही खोलते आंखें हय हय
ख़ूब वक़त आये तुम इस `आशिक़-ए बीमार के पास

मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बां के बदले
दशनह इक तेज़-सा होता मिरे ग़म-ख़वार के पास

दहन-ए शेर में जा बैठिये लेकिन अय दिल
न खड़े हूजिये ख़ूबान-ए दिल-आज़ार के पास

देख कर तुझ को चमन बसकि नुमू करता है
ख़वुद ब ख़वुद पहुंचे है गुल गोशह-ए दसतार के पास

मर गया फोड़ के सर ग़ालिब-ए वहशी है है
बैठना उस का वह आ कर तिरी दीवार के पास