भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझको अक्सर भड़काते हैं ये सपने / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
क्या क्या सपने दिखलाते हैं ये सपने,
एकदम पीछे पड़ जाते हैं, ये सपने !
मैंने हर खिड़की दरवाजा बंद किया था,
जाने किस रस्ते आते हैं, ये सपने !
इनको मालूम है मैं इनसे डरता हूँ,
मुझे डराने आ जाते हैं, ये सपने !
इनको अक्सर मैं समझाकर चुप करता हूँ,
मुझको अक्सर भड़काते हैं, ये सपने !
जब-जब इनके डर से नींद नहीं आती है,
तब-तब दिन में आ जाते हैं, ये सपने !
वैसे तो ये अक्सर, झूठे ही होते हैं,
कभी-कभी सच दिखलाते हैं, ये सपने !
जब-जब मेरी हार, मुझे तडपाती है ,
तब-तब आकर समझाते हैं, ये सपने !
ये ‘आनंद’ गया तो , लौटे न लौटे ,
इसी बात से घबराते हैं, ये सपने !