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मुझको उदास करने की ज़िद पर तुली हुई / सूर्यभानु गुप्त

मुझको उदास करने की ज़िद पर तुली हुई
क्या चीज़ है ये मेरे लहू में घुली हुई

अपने बदन के ख़ोल में मैं बंद हो गया
मुझको मिली कल एक जो लड़की खुली हुई

कुछ बूढ़े मेरे गांव के संजीदा हो गये
फेंकी जो मैंने शहर की भाषा धुली हुई

दरिया के पास धूप को बरगद कोई मिला
दरिया के पास धूप ज़रा काकुली हुई

लट्टू की तरह घूम के चौराहा सो गया
चुपचाप देखती रही खिड़की खुली हुई

मुरली सा कोई शख्स बजा जब भी ध्यान में
मेरे बदन की आबो-हवा गोकुली हुई