भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको एकाकी गाने दो / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझको एकाकी गाने दो!
गाऊँ भी मैं, और सुनूं भी; छिन अपने में खो जाने दो!
मुझको एकाकी गाने दो!

नयनों में भर रस से गीले,
गत सुधियों के चित्र सजीले-
मँदरे-मँदरे स्वर में मुझको गाते-गाते सो जाने दो!
मुझको एकाकी गाने दो!

इस निर्जन झरने के तट पर,
आने दो यह बंसी का स्वर!
नवमी के चन्दा को मेरे मन की मलमल धो जाने दो!
मुझको एकाकी गाने दो!

एक बार बस ऐसा गा लूँ-
अपने को अपने में पा लूँ!
युग-युग से बिछुड़े तन-मन का साथ पलक-दो हो जाने दो!
मुझको एकाकी गाने दो।

1955