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मुझको एहसास की / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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मुझको एहसास की चोटी से उतारे कोई!
मेरी आवाज़ में ही मुझको पुकारे कोई!

ज़िन्दगी दर्द सही, प्यार के काबिल न सही,
मेरे रंगों में मेरा रूप संवारे कोई!

जीती बाज़ी को हार के-भी उदास नहीं,
मेरी हारी हुई बाज़ी से भी हारे कोई!

राख कर डाली किसी नूर ने हस्ती मेरी,
रख मल-मल के मेरी रूह निखारे कोई!

तू नहीं, चाँद नहीं और सितारे भी नहीं,
किस तरह से य’ सियह रात गुजारे कोई!

चोट पर चोट से सियाह हुआ हर पहलू,
दम निकलता है अगर फ़ूल भी मारे कोई!

बाँसुरी-जैसी बजे घाटियों की तनहाई,
किस क़दर प्यार से ‘सिन्दूर’ पुकारे कोई!