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मुझको क़तरा जो बनाता है मेरा डर ही तो है / श्याम कश्यप बेचैन

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मुझको क़तरा जो बनाता है मेरा डर ही तो है
वर्ना क़तरा भी हक़ीक़त में समन्दर ही तो है

मैं रहूँ या कि चला जाऊँ कोई फ़र्क़ नहीं
मेरा रहना भी न रहने के बराबर ही तो है

मैं परिन्दे की तरह क्यों डरूँ बिजूखे से
वजूद उसका महज़ इक लिबास भर ही तो है

गर ना चुभता तो मेरे पाँव भटक ही जाते
ये मेरी राह का काँटा मेरा रहबर ही तो है

तुमने चाहा कि भला हो मेरा, लेकिन न हुआ
क्या करे कोई मेरा ऐसा मुक़द्दर ही तो है

कभी सितारे हमारे भी थे बुलंदी पर
अब हुए ख़ाक जो ये वक़्त का चक्कर ही तो है