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मुझको जीने का इक वो हुनर दे गया / मोहम्मद इरशाद
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मुझको जीने का इक वो हुनर दे गया
मेरी बातों में कैसा असर दे गया
अब तो हर शह ज़माने की अच्छी लगे
जाने कैसी मुझे ये नज़र दे गया
चाहे मिट्टी का कच्चा घरौंदा सही
मैं तो बेघर था मुझको वो घर दे गया
उस से मंज़िल का अपनी पता पूछा था
ख़त्म होता नहीं जो सफर दे गया
मुझसे परवाज़ का हौंसला छीन कर
किस लिए मुझे बालो-पर दे गया
उस पे आख़िर मैं कैसे यकीं न करूँ
वो अना के लिये अपना सर दे गया
मुझसे सब-कुछ मेरा छीन कर ले गया
और बदले में दुनिया का डर दे गया
देखो आते हैं ‘इरशाद’ इधर से भी
हमको झोंका हवा का ख़बर दे गया