भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझको तुम उतने पल दे दो / धीरज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मुझको तुम उतने पल दे दो
जितने में मन को समझा लूँ।
सारा जीवन बीत गया है
घोर हलाहल पीते पीते।
अपने से ही घृणा हो गई
ऐसा जीवन जीते जीते।
एक बार कुछ ऐसा कह दो
मैं अपने से प्यार जता लूँ।
मुझको तुम उतने पल दे दो
जितने में मन को समझा लूँ।
सन्नाटे बन-बन कर फैले
नयनों के मोती बंजारे।
दिन रजनी का भेद मिट गया
नैना जागे साँझ सकारे।
तुम इतना-सा सम्बल दे दो
युग से टूटी नींद सजा लूँ।
मुझको तुम उतने पल दे दो
जितने में मन को समझा लूँ।
प्राण इसी लाचारी में ही
रोज रोज घुलते जाते हैं।
दो टाँके ही सिल पाता हूँ
और चार खुलते जाते है।
तुम केवल बस इंगित कर दो
अपने रूठे सपन मना लूँ।
मुझको तुम उतने पल दे दो
जितने में मन को समझा लूँ।