भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझको पहाड़ ही प्यारे हैं / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
Kavita Kosh से
प्यारे समुद्र मैदान जिन्हें
नित रहे उन्हें वही प्यारे ।
मुझको तो हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे हैं ।।
पाँवों पर बहती है नदिया
करती सुतीक्षण गर्जन ध्वनियाँ ।
माथे के ऊपर चमक रहे
नभ के चमकीले तारे हैं ।।
आते जब प्रिय मधु-ऋतु के दिन
गलने लगता सब ओर तुहिन ।
उज्ज्वल आशा से भर आते
तब कृश-तन झरने सारे हैं ।।
छायाओं में होता है कुंजन
शाखाओं में मधुरिम गंजन ।
आँखों के आगे वनश्री के
खुलते पट न्यारे-न्यारे हैं ।।
छोटे-छोटे खेत और
आड़ू-सेबों के बाग़ीचे ।
देवदार वन जो नभ तक
अपना छवि-जाल पसारे हैं ।।
मुझको तो हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे हैं ।।