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मुझको मेरी हार भली / सरोज मिश्र
Kavita Kosh से
उनको अपनी विजय सिद्ध हो, मुझको मेरी हार भली!
पर्वत ने कितने दुख भोगे,
ऋतुओं के बदलाव सहे!
जिसने चाहा जितना तोड़ा,
कभी नहीं दो बोल कहे!
बूंद बूंद रचने वाले को,
नदी एक दिन छोड़ चली!
उनको अपनी विजय सिद्ध हो,
मुझको मेरी हार भली!
हाथ किये माली ने घायल,
खिले फूल फिर महक उठे!
धूप पसर कर आई सोने
तन मन कितने बहक उठे!
लेकिन ख़ुश्बू चमन छोड़ दे
किसे लगे ये बात भली!
उनको अपनी विजय सिद्ध हो,
मुझको मेरी हार भली!
उगे पंख जब उड़े पखेरू,
नीड़ पुराना छोड़ चले!
किन्तु गगन में नहीं मिलेंगी,
शाखें उनको शाम ढले!
कुन्दन तन क्या श्यामल काया
माटी सबने एक मली!
उनको अपनी विजय सिद्ध हो,
मुझको मेरी हार भली!