मुझको रुसवा न करो शहर के बाज़ारों में / रमेश तन्हा
मुझको रुसवा न करो शहर के बाज़ारों में
बेचने वालों में हूँ मैं, न खरीदारों में।
ठन गयी ऐसी भी क्या गुल के निगहदारों में
बुलबुले ख़ार लिए फिरती हैं मिनकारों में।
अपनी ही आग में जल जाते हैं जलने वाले
राख के ढेर छुपे होते हैं अंगारों में।
शब-गज़ीदों को भी क्या रौशनी डस जाती है
कोई तो बात यक़ीनन है ग़लत-कारों में।
कोई खलवत भी कहां होती है खलवत जैसी
ख़ुशबूएं क़ैद कहां रहती हैं दीवारों में।
कर्ब-ए-तन्हाई के सैलाब से जूझेंगे वो क्या
जो कभी उतरे नहीं रूह के मंझधारों में।
अंधे रस्तों का सफ़र भी हमें मंज़ूर, मगर
कोई सालार तो हो काफ़िला-सालारों में।
वक़्त ले आया यह किस मोड़ पे हमको कि जहां
अब न वो बात है नज़रों में न नज़्ज़ारों में।
क्यों न ये देख के इंसान ही बन कर जी लें
इक लड़ाई सी लगी रहती है दींदारों में।
आग लग जाये न क्यों ऐसी खबर गीरी को
ख़स-ओ-खाशाक बहुत छपता है अखबारों में।
गर्द-ए-माज़ी को ज़रा झाड़ के देखें तो सही
हम भी निकलेंगे हुज़ूर आप ही के प्यारों में।
छेड़ तनहाई से सन्नाटों की रहती है मुदाम
एक शहनाई सी बजती है सदा गारों में।
पी के फिर मसलहतन भी कभी बोलेंगे न झूठ
कौन कहता है कि दमाखम नहीं मय-ख़ारों में।
हो के फुस रह गया गुब्बारा अना का मेरी
अपने मरने की खबर देखी जो अखबारों में।
रूह को चैन न घर में है न बाहर 'तन्हा'
जब से नाम अपना लिखाया है कलमकारों में।