मुझसे नहीं होगा / प्रकाश मनु
प्रगतिशील हूं, लेकिन...
सुबह-सुबह - मुंह अंधेरे
एक छोटी-सी टोकरी में लिए पूजा के फूल
डगमगाते कदमों से बढ़ी जा रही मंदिर की सीढ़ियों की ओर
उस बूढ़ी, कृश काया को
‘जीवें पुत्तर जीवें...कहती जो अभी-अभी मेरे सामने से निकली है-
कहूं घोर अज्ञानी
आंखें मिचमिचाकर हंसूं उसकी भक्ति
उसके प्रार्थना-गीतों की कंपकंपाती लय पर-
मुझसे नहीं होगा।
प्रगतिशील हूं, लेकिन...
एक सूखे तर्क की डाली पकड़
गला फाड़ चिल्लाऊं कि करूणा है मृथा
मृथा है रोना-धोना...फिजूल के छोटे-मोटे दुखों को
शब्दों में सीना-पिरोना
कि प्रेम और भावुकता को देश निकाला दे दिया सदी ने...
मंच पर खड़ा-खड़ा
चंद फूले हुए, ऊले हुए शब्दों से
लगाऊं भाषा में बढ़िया-सा छोंक-बघार-
और अगले दिन ठाठ से मनाऊं इतवार।
मुझसे नहीं होगा।
प्रगतिशील हूं, लेकिन...हर घड़ी
नए और पुराने प्रगतिशीलों की
बनाया करूं काली-सफेद लिस्टें
कुछ को करूं खारिज कुछ से उचककर
मिलूं गले
अन्तरात्मा चीखती रहे भले...
मगर मैं असहमतियों को शत्रु घोषित कर
धकेलता-धकेलता टिका दूं दीवार के सहारे
और यूं दिखाकर इनको ओर उनको दिन में तारे
विजयी अट्टाहास करूं अपनी जीत पर-
मुझसे नहीं होगा।
प्रगतिशील हूं, लेकिन ...
फूल, पेड़, दरिया, चांद और तारों की झिलमिली पर
बाएं हाथ से
फेर दूं काली कूची
और पार्क में गुलाबी फ्राक पहने हरे-पीले गुब्बारों से खेलती बच्ची
कि निर्मल शिशु हंसी को
दबा दें किसी मोटी पाथी के किलो, डेढ़ किलो वजन के नीचे।
एक बुलबुल के बांकपन, एक कोयल की कशिश को
बंदी बना लूं संकरे तर्क के पिंजड़े में,
तिनका-तिनका संवेदनाओं को डालकर वेस्ट पेपर बास्केट में
छाती तानकर लगा दूं झाड़ा-
और झाड़कर-बुहारकर जो-जो कुछ अपना है
खरीदूं औरों के चमकते हुए, बारीक पन्नीदार विचार
एक-एक के बनाऊं चार ...ग्लोबलाइजेशन
के धेधे के होकर अंधा-
मुझसे नहीं होगा।
प्रगतिशील हूं, लेकिन ...
यह दुनिया सारी की सारी लिख दूं उन्हीं महाजनों के नाम
जो पढ़-लिख गए है चार आयातित मोटी किताबें
और गर्दनों को अकड़कार तख्ता बनाए
घूम रहे हैं इंडिया गेट पर कलां की और ढिकां की
खड़ूस व्याख्याएं करते
और जिन-जिन ने खड़िया और बुदक्का से
लिखी जिंदगी चटाई और टाअपट्टी पर बैठ
उनसे घिनाकर कहूं-गंवार, बदबूदार ...
नहीं बरखुरदार, मुझसे नहीं होगा।
प्रगतिशील हूं, लेकिन ...
छोड़कर छोटे-छोटे आदमियों के छोटे दुखों का इतिहास
अपने लिए दर्द तलाशूं कोई खास
और किसी नामवर की खासुलखास राजनीति के चैम्बर में
अलसाकर फैलाऊं पैर ...
जिंदगी का सब खटराग छोड़
जब-तब निकल जाऊं कोरे, नए-नकोर सिद्धान्तों की सैर पर ...
और जो-जो हैं दादा लेखन और फेखन के
करूं उनकी चम्पी-चरण सेवा
और जो-जो कुछ भी गरी-मेवा
आ पड़े झोली में
खाऊं ...प्रसाद समझ
जबकि आंख नीची हो मेरी, मेरे आप के आगे-
मुझसे नहीं होगा-
निश्चय ही मुझसे नहीं होगा।