मुझसे शेरों का ये ब्योपार नहीं हो सकता / अजय सहाब
मुझसे शेरों का ये ब्योपार नहीं हो सकता
मैं कभी दुश्मने मेयार<ref>गुणवत्ता का दुश्मन</ref> नहीं हो सकता
इसमें ख़बरें हैं मुहब्बत की ,रफ़ाक़त<ref>मित्रता</ref> की हुज़ूर !
ये मेरे मुल्क का अखबार नहीं हो सकता
कितनी दौलत है अंधेरों का मुलाज़िम बनकर
पर मैं ज़ुल्मत<ref>अँधेरा</ref> का तरफ़दार नहीं हो सकता
मुझको इनआम या अलक़ाब<ref>उपाधियाँ</ref> मिलें तो कैसे
मैं कभी खादिमे दरबार<ref>दरबार का,सत्ता का सेवक</ref> नहीं हो सकता
अपनी आँखों के ही आंसू नज़र आएं जिसको
चाहे कुछ भी हो वो फ़नकार नहीं हो सकता
मेरे नग़मे में हैं इंसान की आहें लोगो
ये तो पाज़ेब की झंकार नहीं हो सकता
तूने मज़लूम<ref>पीड़ित</ref> की, मुफ़लिस की मदद की ही नहीं
तू कभी साहिबे किरदार<ref>चरित्रवान</ref> नहीं हो सकता
छाओं भी बाँटी है फ़िरक़ों में सियासत की तरह
तू कभी साया ए अशजार<ref>पेड़ों की छाया</ref> नहीं हो सकता
सच तो सबको है पता पर कोई कहता है कहाँ
सच कभी शामिले गुफ़्तार<ref>बात चीत का हिस्सा</ref> नहीं हो सकता
तल्ख़<ref>कड़वा</ref> बातों को बयां करता है शेरों में 'सहाब'
वो ज़माने सा रियाकार<ref>मक्कार</ref> नहीं हो सकता