भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझी को भूल बैठे हैं / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझी को भूल बैठे हैं मुझे पहचानने वाले
मुझी से रूठ बैठे हैं मुझी को जानने वाले

न जाने क्यों उन्हें मुझमें शिक़ायत ही नज़र आती
नज़र में आजतक उनकी हिदायत ही नज़र आती
मुहब्बत को मुसीबत का दिया है नाम उन्होंने
हक़ीक़त को बिना जाने किया बदनाम उन्होंने

मुझे अनजान लगते हैं मुझी को जानने वाले
समझता था जिन्हें अपना पराया वह समझ बैठे

समझता था जिन्हें अपना पराया वह समझ बैठे
किसी को छूट है मुझसे बिना समझे उलझ बैठे
जो ख़ुद मज़बूर हैं उनको सहारा क्यों कहे कोई?
जहाँ पर मैं खड़ा उसको किनारा क्यों कहे कोई?

मुझे मझदार कहते हैं मुझी को चाहने वाले
मुझी को भूल बैठे हैं मुझे पहचानने वाले

कि जिन पर था भरोसा यह मुझे पहचानते हैं वे
उन्हीं पर हो रहा सुबहा न मुझको जानते हैं वे
बहुत से यार मिलते हैं मुझे दुनिया के मेले में
मगर अपना न है कोई यही लगता अकेले में

न अपने को समझते हैं मुझे अनुमानने वाले
मुझी को भूल बैठे हैं मुझे पहचानने वाले

ज़रूरत है मुझे, उसकी मुझे पहचान जो पाए मगर किसको पुकारूं मैं मुझे कुछ जान जो जाये
भला ऐसे अकेले में कहीं इन्सान जीता है?
ज़हर हर रोज़ क्या ऐसे कोई नादान पीता है?

मुझे नादान कहते हैं, निगाहें तानने वाले
मुझी को भूल बैठे हैं मुझे पहचानने वाले

मुझे कहते रहे वहशी जिन्हें मैं प्यार करता हूँ
मुझे छोटा कहा करते जिन्हें संसार कहता हूँ
उजाले के लिये पूजा, अन्धेरे की डगर पाई
किसी से रास्ता पूछा भटकने को लहर पाई

भला कैसे जियूंगा मैं नरम दिल में लिये छाले
मुझी को भूल बैठे हैं मुझे पहचानने वाले।