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मुझे अपने दुख संग जीने दो / तारा सिंह

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प्रिये! निज अलकों के अंधकार में
छिप जाऊँ इसके पहले,एक आग्रह है
तुम्हारे हृदय के, जिस प्रणय-पत्र में
हम दोनों के प्रथम मिलन का, क्षण
मुहूर्त, संवद ,शताब्दी है अंकित, उसे
समय सरिता की धारा में बहा दो
और तुम अपने सुख में सुखी रहो
मुझे अपने दुख संग जीने दो

मत भरो अपनी आँखों में पानी
इसे निर्विकार रहने दो, इन्हीं की
यौवन छवि से दीप्त है
विश्व में, मनुज कामना की मूर्ति
इनमें अपना स्पर्श-स्फ़ूर्ति भरती रहो

मेरी छोड़ो ,मैं जीवक के दुर्गम पथ पर
विरथ दौड़-दौड़ कर थक चुका हूँ
जीकर मरण उत्सव भी मना चुका हूँ
अब अम्बर फ़टे,या मत्यु गिरे झड़-झड़
जगती के बाहर शून्य कुल के उस पार
अपना एक दुखाकाश बना चुका हूँ


प्रेम-वेदना होती क्या,इसके संग प्रेमी-मन
सोता कैसे, अब कुछ स्मरण नहीं होता
अपनी हृदय विकलता को,प्रेम में मिला
जीवन का परितोष मान चुका हूँ

तुम अपनी कहो,जीवन मध्याह्न की
रात्रि के पिछले पहर में, किस
सुख की आकृति को स्वप्न में,देखकर
तुम, नींद से चौंककर , जाग गई थी
और जब मैं चाहा तुमको अपनी
बहु लता में जकड़ना, मिलन की वेला
बीत चुकी, कहकर, मेरे आलिंगन में
आते-आते निकलकर भाग गई थी

वह रात आज भी काँटे बन
मेरे सीने में है चुभी हुई
जिसकी जीवित व्यथा सोचने नहीं देती
क्यों और कैसे, मेरे प्रेम–कुंज में
विरोध की विषम बेली फ़ैली, जिससे
मेरी जीवन उपासना हो गई मैली