भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझे उत्तर चाहिए / सुधा चौरसिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने इतनी वर्जनाएँ
इतनी सीमाएँ
इतने नियम
सिर्फ मेरे लिए ही
क्यों इजाद किया

तुमने मुझे सृष्टि का कोमल प्राणी करार दे
मेरे हाथों, पैरों में बेड़ियाँ पहनायी
और फिर यातनाओं का दरवाजा खोल दिया
तुमने बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त की, लेकिन
तुम्हारी इज्ज़त, प्रतिष्ठा उससे नहीं बढ़ी
बढ़ती है मुझे क्रूर बंधनों में जकड़कर
ईंट गारों के निर्मम घरों में बंद कर देने से
आश्चर्य है तुम पर
और तुम्हारे बनाये भेड़ों के समाज पर
मेरे बंद रहने से, जल मरने से
तुम्हारी, समाज में इज्जत कायम रहती है

सोचो, तुम कितने निःसहाय
और दुर्बल हो
दिन-रात अपने समान
एक प्राणी का खून कर
अपनी इज्जत कायम रखते हो
आश्चर्य है, किस बूते पर
अपनी श्रेष्ठता का दम भरते हो
मैं तुम्हारा कालाधन नहीं, जिसकी
तुम दिन-रात निगरानी करो

आने दो मुझे भी मैदान में
और उपलब्ध कराओ अपनी जितनी
सुविधाएँ, पहुँच और परिवेश
फिर करो मुकाबला
मेरे हाथों की चूड़ियाँ, मेरे पावों के पायल
मेरे सौंदर्य का पूरक नहीं, तुम्हारा कुचक्र है
जिसने मेरे सही स्वरूप को भ्रमित किया है
ये हथकरियाँ, बेड़ियाँ
तुम्हारी ही हीनता व कमजोरी का परिचायक है
मैं तो आज भी उतनी ही सबल, सक्षम हूँ
लाचारी तो यह है कि हर रास्ते पर
तुम्हारी पैचाशिक वृत्तियाँ मुँह फाड़े खड़ी है
तुम आदमखोर बाघों की तरह
अपने शिकार की रखवाली करते हो
और तुम्हारे द्वारा खींची गई
क्रूर नियमों की लक्ष्मण रेखाओं के बाहर
दरिंदे और चिताएँ ही मिलती है

और यह मेरी नियति नहीं
तुम्हारी व्यवस्था है
जहाँ तुम प्रश्नों के कटघरे में हो
मुझे उत्तर चाहिए
तुम्हें उत्तर देना होगा...