भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से / नवनीत शर्मा
Kavita Kosh से
मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से
तुम्हारे शहर से लौटी है ख़ामुशी फिर से
यहाँ दरख़्तों के सीने पे नाम खुदते हैं
मगर है दूर वो दस्तूर-ए-बंदगी फिर से
गड़ी है ज़िन्दगी दिल में कँटीली यादों-सी
ज़रा निजात मिले, तो हो ज़िंदगी फिर से
बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से
सनम तो हो गया तब्दील एक पत्थर में
मेरे नसीब में आई है बंदगी फिर से
मुझे भुलाने चले थे वो भूल बैठे हैं
उन्हीं के दर पे मैं पत्थर हूँ दायमी फिर से.