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मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से / नवनीत शर्मा

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मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से
तुम्हारे शहर से लौटी है ख़ामुशी फिर से

यहाँ दरख़्तों के सीने पे नाम खुदते हैं
मगर है दूर वो दस्तूर-ए-बंदगी फिर से

गड़ी है ज़िन्दगी दिल में कँटीली यादों-सी
ज़रा निजात मिले, तो हो ज़िंदगी फिर से

बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से

सनम तो हो गया तब्दील एक पत्थर में
मेरे नसीब में आई है बंदगी फिर से

मुझे भुलाने चले थे वो भूल बैठे हैं
उन्हीं के दर पे मैं पत्थर हूँ दायमी फिर से.