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मुझे कविता कहने की आदत अब तक तो न थी / सुजाता

किन्हीं गड्ढों में बहुत गहरे पाँव फिसल गया है
पढ़ते हुए कोई उपन्यास नही सूझ रहे अर्थ ठीक ठीक
मैं औरत हूँ असम्पृक्त , बिना जड़ की पेड़
जो लटक गई है लताओं के गले में बेशर्म सी

इस रात में मुझे वफादार होना था और मैं मंसूबे बना रही थी
कि कैसे सेंध लगानी है मुझे अपने भीतर और सायरन बजने से पहले
भाग जाना है वापस गड्ढों की फिसलन में
ये दोनों जीवन निभाने को चाहिए चूहे सी दिलेरी
इसलिए कुतर लिए है उपन्यास के पन्ने मैंने जल्दी जल्दी
अब कम से कम तुम्हारे हाथ नही लगेगा कोई सुराग
कविताओं का

मैं औरत हूँ छपी हुई एक शादी के इश्तेहार सी अखबार मेँ
एकदम चकाचक , जिसमें एक अनजाना कुँआ है
जहाँ आत्महत्याएं करना आसान है सुनते हैं
मुझे नींद में बकने की बीमारी अब तक तो नही थी
इतनी शर्तें लगाओगे मन्नत के धागों की तरह
पेड़ की सूखी टहनियों- से मेरे उलझे बालों में
तो इन सारी धूप बत्तियों की खुशबू ले उड़ूँगी एक दिन
जब फिसलूँगी धम्म से ,तुम्हारी बिछाई काई पर जिसे हरियाली कहते हो

कुँए की मुंडेर पर कितने बन्दर हैं बैठे और देखो
वे बैठे बैठे सुजान हो गए हैं , और रस्सियाँ पागल सी
घिस गई हैं
उन्हें लगा होगा घिस घिस कर तेज़ होंगी
तब किसी उन्मादी रात वे हड़का देंगी बन्दरों को लेकिन
घिस कर टूटने की पूरी संभावना ने बंदरो को बेचैन कर दिया है
मैं औरत हूँ घिसी हुई रस्सी जैसी
और तमाशा बनने से पहले निशाँ छोड़ जाना चाहती हूँ
मुझे नींद में चलने की अब तक आदत तो नही है
और जागते में अक्सर ठप्प रही हूँ किसी खराब घड़ी की तरह
बजेगी जो किसी सही वक़्त पर अलार्म की तरह
कनफोड़ आवाज़ में रह-रह कर निश्चित अंतराल पर बार-बार !