मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
सो कितनी दूर तलक बहते एक धारे में
मुझे भी पड़ गई आदत दारोग़-गोई की
वो मुझ से पूछता रहता था मेरे बारे में
ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे
हुआ है मुझ को बहुत फ़ाएदा ख़सारे में
कहाँ रहा वो गुमान अब कि हैं ज़माना-शनास
उलझ के रह गए ज़ू-मअ’नी इक इशारे में
अजीब बात सही ख़ुद को दाद-ए-फ़न देना
किसी के लम्स की ख़ुश्बू है इस्तिआरे में