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मुझे काम करता आदमी अच्छा लगता है / संजय अलंग


कोई स्टेशन में बैग पर प्रतीक्षा में बैठा
डाल उँगली नाक में, निकालता है कुछ
घुमाता दो उँगलियों के बीच और बनाता गोल-गोल उसे
कभी उसे अनदेखे निशाने की ओर
उछाल देता सधे हाथों से
कभी बैग के किनारे पर पोंछ चिपका देता
किनारे सीढ़ियों के दहाने बैठा आदमी
इस असीम आनन्ददायक कृत्य को निहारता
स्टेशन पर तम्बाखू की पीक थूकता जाता

कोई नुक्कड के पान ठेले की बेंच पर बैठा
जिसे भी जानता-पहचानता उसकी निंदा-चुगली करता
सर्व सुलभ आनन्द में डूबा रहता
उलटता-पलटता, ज़िन्दग़ी सी घिसीटता
कभी बैंच पर उकडू बैठ
आती-जाती लड़कियों को ताड़ता
बेवज़ह हँसता,ऊँची आवाज़ में बात करता
कोई ऍसे कामों से तंग आ जाता
तो चाकू चलाता,लूटता,बालात्कार को लपकता या
लड़ता मुकदमा बँटवारे का

खाली मन में शैतान क्यों न घर करता
तब भी खाली का खाली ही रहता
यह खालीपन भी उन्नती की सर्वोच्च चाहत पर ही रूकना चाहता
मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों से अधिक
प्रतिष्ठा और अमीरी की उड़ान भरना चाहता
 ऍसे में क़फ़न के लिए जुटे पैसों से
पूड़ी-सब्ज़ी खाने की क्यों न मन करता
जब है यहाँ यह ही पूर्ण सृजन कि
जुगाड़ लिया जाए किसी तरह भोजन
तब कैसे होगा बन्द जीमना घीसू का
क़फ़न के पैसों पर

स्वभाव और परम्परा में नही आता ऍसा रक़्त
जो सोचे आक्रमण और क्राँति
करेला अब नीम भी चढ़ा
इसमें अब निट्ठलापन भी है साथी

न्युनतम राष्ट्रभक्ति और सेवा सम्भव हो जाए यदि
हर व्यक्ति कमाए और अपनी कमाई से ही खाए
स्वयं उत्कृष्ट सर्वोच्च संसाधन हो जाए
तब डालर कर्जा बाँटने वाला ही निट्ठला हो जाए
निराला की पत्थर तोड़ने वाली उच्च राष्ट्रभक्त कहलाए

इस विचार से जो हो जाएँ सहमत सब तो
काम करता आदमी अच्छा लगने लग जाए

मुझे काम करता आदमी अच्छा लगता है, कहकर
कहीं निट्ठलेपन की ही तो नहीं उड़ रही, बेपर
इस काफ़िले में कहीं सब न शामिल हो जाएँ
ठाठ से नाक में उँगली डाल कर बैठ जाएँ