भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे कोई सूरत लुभाती नहीं है / चेतन दुबे 'अनिल'
Kavita Kosh से
मुझे कोई सूरत लुभाती नहीं है
तेरी याद ही दिल से जाती नहीं है
सदा अश्क बनकर के बहती दृगों से
कि जो याद दिल में समाती नहीं है
प्रणय - पंथ पर मैं अकेला खड़ा हूँ
कोई साथ चलने को साथी नहीं है
तिमिर - ही - तिमिर छा गया जिन्दगी में
मगर चाँदनी रात भाती नहीं है
न जाने कि क्या हो गया है हृदय को
जो तेरे बिना नींद आती नहीं है
दिया बन के अब रोशनी कौन देगा
जो दिल के दिए में ही बाती नहीं है
निगाहे - करम मुझपे फिर कीजिएगा
क्यों अब एक भी आती पाती नहीं है