मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख्तियार होता / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख़्तियार होता
तो मैं राह-ए-आरज़ू में यूँ खराब-ओ-ख़्वार होता?
तुझे मेरा, मुझ को तेरा अगर ऐतिबार होता
न तू शर्मसार करता, न मैं शर्मसार होता!
किया तूने ये गज़ब क्या, दिया खोल राज़-ए-हस्ती?
न मैं आशकार होता, न तू आशकार होता!
ग़म-ए-आरज़ू में जां पर मिरी यूँ अगर न बनती
कोई और तेरा साथी, दिल-ए-बेक़रार! होता?
सर-ए-बज़्म मेरी जानिब जो तू उठती गाहे गाहे
मुझे तुझ से शिकवा फिर क्यूँ ऐ निगाह-ए-यार!होता?
न मैं तुझसे आश्ना हूँ, न ही ख़ुद से बा-ख़बर हूँ
ये मज़े कहाँ से मिलते अगर होशियार होता?
मिरी फ़िक्र दिल-कुशा है मिरी बात बे-रिया है
तुझे फिर भी ये गिला है मैं वफ़ा शि’आर होता
है ख़ता यह इश्क़ लेकिन, ये गुनाह तो नहीं है!
मैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता!
ग़म-ए-आशिक़ी हुआ है ग़म-ए-ज़िन्दगी में शामिल
“मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता!“
तिरी इक ग़ज़ल भी ‘सरवर’ किसी काम की जो होती
तो ज़रूर शायरों में तिरा भी शुमार होता!