मुझे तो यूँ भी इस राह से गुज़रना था
दिल-ए-तबाह का कुछ तो इलाज करना था
मेरी नवा से तेरी नींद भी सुलग उठती
जरा सा इस में शरारों का रंग भरना था
सुलगती रेत पे यादों के नक़्श क्यूँ छोड़े
तुझे भी गहरे समंदर में जब उतरना था
मिला न मुझ को किसी से ख़िराज अश्कों में
हवा के हाथों मुझे और कुछ बिखरना था
उसी पे दाग़ हज़ीमत के लग गए देखो
यक़ीं की आग से जिस शक्ल को निखरना था
मैं खंडरों में उसे ढूँढता फिरा ‘फिक्री’
मगर कहाँ था वो आसेब जिस से डरना था