भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे नहीं जगाते सौ सौ सूर्योदय / विजय सिंह नाहटा
Kavita Kosh से
मुझे नहीं जगाते सौ-सौ सूर्योदय
चिर नींद से जगाती है मुझे
भीतर खदबदाती आग।
रोज एक सपना देखते रहना ही है
मुझे प्रासंगिक
हर एक दिन औजार की तरह है
जिससे करता रहता हूँ
इस टूटी फूटी दुनिया की मरम्मत।
चाहता हूँ यह हो साफ़ सुथरी
औ' सलवटों से रहित।