मुझे मृत्यु से डर कैसा? / राजकुमार कुंभज
मुझे मेरी मृत्यु से डर कैसा?
मृत्यु तो मेरा एक और नया घर होगा भाई
आओ अभी थोड़ा आराम करें यहीं इसी घर में
फिर चलेंगे उधर कुछ देर बाद मिलने उस मिट्टी से
खेला करते थे जिस मिट्टी से बचपन में
जिस मिट्टी में पले, बढ़े, बड़े हुए
उस मिट्टी से फिर परहेज़ कैसा?
थोड़ी बारिश हो जाए, तो चलूँ
थोड़ी धूप खिल जाए, तो चलूँ
थोड़ी तुतलाहट मिल जाए, तो चलूँ
मुझे मृत्यु से डर कैसा?
मृत्यु तो एक और नया घर है मेरा, कागज़ की नाव जैसा
काँच के गिलास जैसा, दर्पण की किसी मूल जैसा
मगर इस बीच मैं छूना चाहता हूँ आत्मा की चींटी
मगर इस बीच मैं पीना चाहता हूँ दो-चार पैग़ और
मगर इस बीच मैं छेड़ना चाहता हूँ कुछ और लड़कियाँ
कुछ देर तो रुको यार
चलते हैं, उस घर भी चलते हैं
पहले कुछ तालियाँ तो बजा लूँ जम कर
पहले कुछ हँस तो लूँ खुल कर हा, हा, हा
पहले कुछ उदर-पोषण तो कर लूँ नहा-धोकर
इस-उस को थोड़े बहुत धप्पे तो लगा लूँ बेमतलब
भूलता नहीं हूँ
कि ज़िन्दगी भर फेंटता रहा पत्ते-दर-पत्ते
किंतु अब कुछ करना चाहता हूँ डरने से पहले
भूलता नहीं हूँ
कि ज़िन्दगी भर फेंकता रहा खाली-खाली अद्धे-दर-अद्धे
किंतु अब कुछ करना चाहता हूँ मरने से पहले
भूलता नहीं हूँ
कि ज़िन्दगी भर लिखता रहा कविताएँ कारणरहित
किंतु अब कुछ करना चाहता हूँ लिखने से पहले
पता नहीं मैं ऎसा कुछ कर पाऊंगा या नहीं?
देखो, देखो, वे सुन्दर स्त्रियाँ कैसे चढ़ रही हैं चट्टानें?
देखो, देखो, वे अपढ़ बच्चे कैसे जीत रहे हैं जंग?
देखो, देखो, वे मेरे ही बंधु-बांधव कैसे उठा रहे हैं मेरा मेला?
इससे पहले कि मेरे बच्चे थूकें मुझ पर
मैं सम्भल जाना चाहता हूँ और बदल जाना चाहता हूँ थोड़ा
बदल जाना ही नया संस्कार है, तो बदलता हूँ मैं
मुझे मेरी मृत्यु से डर कैसा?
मृत्यु तो मेरा एक और नया घर होगा भाई
क्या तुम अपना घर नहीं बदलोगे?
शायद डरते हो घर बदलने से, नए घर में जाने से
मैं तो फिर-फिर बदल लूंगा अपना घर से
मुझे मेरी मृत्यु से डर कैसा?