मुझे वर्षा ऋतु पसन्द है / पेरुमाल मुरुगन / मोहन वर्मा
मैं घर लौट आया हूँ
जैसे संगा काल का
ग्रीष्म ऋतु में गया हुआ शूरवीर
वर्षा को साथ लेकर लौट आता है ।
मेरी प्रतीक्षा में देहली पर खड़ी
पत्नी के अश्रु पोंछता हूँ
माँ जिसका निधन कुछ दिन पूर्व ही हुआ था
उसके बारे में सोचता हूँ
गर्मियों और मानसून के बीच की अवधि
बच्चों के लिए एक कहानी में रूपित करता हूँ
और सम्बन्धी
बिना रोक-टोक आते हैं, चले जाते हैं ।
जब बारिश होती है
मैं पर्दे गिरा देता हूँ
और शीतभरी रातों का
आनन्द उठाता हूँ
पनाह माँगने आए कीड़े-मकोड़ों को
ज़हर देकर मार देता हूँ
यह घटनाओं से शून्य दौर है ।
चीज़ों को पोंछ कर साफ़ करता हूँ
फफूँद न लग जाए, ज़ोर से रगड़ता हूँ
दीवारों पर पानी टपकने के निशान तलाशता हूँ
और उन्हें भर देता हूँ
न जाने कितनी दरारें हैं
मैं उनको भरता ही रहता हूँ ।
दिन चढ़ते हैं
दिन चुकते हैं ।
वर्षा होती है
मैं यदा-कदा पर्दा खिसकाकर
बाहर झाँकता हूँ
आकाश में बिजली चमकती है
मैं उसका गरजना सुनता हूँ ।
लोग कहते हैं
मौसम बदलेगा
पर मैं उनसे कहता हूँ
मुझे वर्षा ऋतु पसन्द है
जब बारिश हो
तो बस घर के भीतर रहो ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : मोहन वर्मा