मुझे शाम आई है शहर में / जावेद अनवर
मैं सफ़र में हूँ
मेरे जिस्म पर
हैं हज़ार रँगों की यूरशें
कहीं सुर्ख़ फूल खिला हुआ
कहीं नील है
कहीं सब्ज़-रँग है ज़हर का
मगर आईना शब-ए-शहर का
मेरी ढाल है !
जो विसाल है
वही असल हिजर मिसाल है
मेरे सामने वही रास्ते
वही बाम-ओ-दर
वही सँग हैं, वही सूलियाँ
मुझे शाम आई है शहर में
मुझे शाम आई है शहर में
जहाँ आसमान की वुसअतों से
सवाल कासा-ब-दस्त लौटे थे
याद है !
शब-ए-हीला जू , तुझे याद है
वो सलीब,
जिस पे मचान, नज्म-ए-सहर की थी
वो ख़तीब,
जिसका ख़िताब अबरू हवा से था
— वो सदाए ज़बत अजीब थी
कहीं कोढ़ियों की शिफ़ा बनी
कहीं अबरू बाद से
चोब-ए-ख़ुशक तड़ख़ रही थी सवेर से !
बड़ी देर से यहाँ मरक़दों के गुलाब
पाँव की धूल हैं
मैं सफ़र में हूँ
मुझे शाम आई है शहर में
मरे हाथ में भी कमान है
मुझे तीर दे