मुझे सब कुछ याद है / अज्ञेय
मुझे सब कुछ याद है
मुझे सब कुछ याद है। मैं उन सबों को भी
नहीं भूला। तुम्हारी देह पर जो
खोलती हैं अनमनी मेरी उँगलियाँ-और जिन का खेलना
सच है, मुझे जो भुला देता है-
सभी मेरी इन्द्रियों की चेतना उन में जगी है।
इन्द्रियाँ सब जागती हैं। और सब भूली हुई हैं खेल में
जिस में तुम्हारा मैं सखा हूँ-
मानवों की सृष्टियों के जाल से उन्मुक्त-
पगहा तोड़ भागे हुए मृग-सा-
स्वयं मानव, चिरन्तन की सृष्टि का लघु अंग।
किन्तु सोयी इन्द्रियों को जगा कर जो स्वयं सोता है-
वह सभी को याद करता है।
जो भुलाता है, नहीं वह भूल पाता। जो रमाता है, स्वयं निर्लेप है वह।
वही कहता है कि वे सब प्यार भी
जी रहे हैं-तड़पते हैं-हैं।
वे सब हैं।
और मेरे प्यार, तुम भी हो। चाँदनी भी है।
मधु के गन्ध बहुविध-पल्लवों के, कोरकों के-
गन्धवह में बसे, वे भी हैं। चाँदनी भी है।
नहीं है तो मैं नहीं हूँ।
इसलिए तुम प्यार लो मेरा-कि वह तो है। प्यार-निधि।
नहीं है तो मैं नहीं हूँ। किन्तु जो मिट गये उन का
प्यार ही तो प्यार है।
प्यार लो मेरा-उसी में चाँदनी है। उस में तुम
उसी में बीते हुए सब प्यार भी हैं।
नहीं है तो मैं नहीं हूँ-जो कि उन सब को कभी भूला नहीं हूँ।
मुझे सब कुछ याद है।
इलाहाबाद (होली पूर्णिमा), 30 मार्च, 1948