मुझ को न दिल पसंद न वो बे-वफा पसंद / 'बेख़ुद' देहलवी
मुझ को न दिल पसंद न वो बे-वफा पसंद
दोनों है ख़ुद-ग़रज मुझे दोनों हैं ना-पसंद
ये दिल वही तो है जो तुम्हें अब है ना पसंद
माशूक कर चुके हैं जिसे बारहा पसंद
जिंस-ए-वफ़ा को करते हैं अहल-ए-वफ़ा पसंद
दुश्मन को क्या तमीज़ है दुश्मन की क्या पसंद
जन्नत की कोई हूर नज़र पर चढ़ी नहीं
दुनिया में मुझ को एक परी-ज़ाद था पसंद
रौंदी किसी ने पा-ए-हिनाई से मेरी नाश
थी ज़िन्दगी में मुझ को जो बू-ए-हिना पंसद
वो बद-नसीब है जिसे आया पसंद तू
क़िस्मत तो उस की है जिसे तू ने किया पसंद
चिड़ते हैं वो सवाल से ये हम समझ गए
है इस लिए उन्हें दिल बे-मुद्दआ पसंद
सूरत भी पेश-ए-चश्म है सीरत भी पेश-ए-चश्म
दम भर में तो पसंद है दम भर में ना-पसंद
तुझ को गुरूर-ए-जौहद है शर्म-ए-गुनह मुझे
ज़ाहिद किसे ख़बर कि ख़ुदा को हो क्या पसंद
चोटें चलेंगी ख़ूब बराबर की जोड़ है
तू है अदा-शनास तो मैं हूँ अदा-पसंद
हर फिर के उन की आँख अदू से लड़े न क्यूँ
फ़ितना को करती है निगह-ए-फ़ितना-ज़ा पसंद
मैं ख़ुद सिखा रहा हूँ सितम की अदा उन्हें
दुनिया में कब हुआ कोई मुझ सा जफ़ा-पसंद
रख देंगे आईना के बराबर हम अपना दिल
या तो ये ना-पसंद हुआ उन को या पसंद
किस दर्जा सादा-लौह हैं आशिक़-मिज़ाज भी
जो ढब पे चढ़ गया वो उन्हें आ गया पसंद
मेरा ही क्या कुसूर ये मुझ पर सितम है क्यूँ
आँखों ने देखा आप को दिल ने किया पसंद
इंकार सुन चुके हैं तलब-गार क्यूँ बनें
मिलता नहीं कोई तो है बे-फ़ायदा पसंद
‘बे-ख़ुद’ तो मर मिटे जो कहा उस ने नाज़ से
इक शेर आ गया है हमें आप का पसंद