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मुझ पर क्यों इतने पहरे हैं / प्रमोद तिवारी
Kavita Kosh से
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मेरे मन ने डरते डरते
मुझसे एक प्रश्न पूछा है
जीवन राख समझने वाले
मुझ पर क्यों इतने पहरे हैं
मेरे ज़ख्म बहुत गहरे हैं
सोच रहा हूँ उत्तर दे दूँ
सारे पहरे वापस ले लूँ
लेकिन यह
उन्मुक्त परिंदा
उसी डाल पर
जा बैठेगा
जहां हमारी थकन
किसी के लिए
बिछौना हो जाती है
जहां हमारे
बीते दिन की
हंसी
खिलौना हो जाती है
जहां सभी आदर्श
सघन छाया पाते ही
सो जाते हैं
और स्मृति में
साथ किसी के
हम हिंसक पशु
हो जाते हैं
इसीलिए अब सोच रहा हूँ,
पहरे और सख्त कर डालूँ,
साथ-साथ
यह भी बतला दूँ।
रे मन,
तू मनहै,
मन ही रह-
काया के अपने घेरे हैं,
उसके ज़ख्म बहुत गहरे हैं।