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मुझ फकीरों के लिए घर न कहीं होता है / कैलाश झा 'किंकर'

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मुझ फकीरों के लिए घर न कहीं होता है
सिर पर अम्बर का ये मंज़र न कहीं होता है।

आदतन मैं तो सदा ज़ख़्म भुला देता हूँ
आदमी आज भी पत्थर न कहीं होता है।

भूख दौलत की बुरी, जिस्म की उससे भी बुरी
भूख का करके शमन डर न कहीं होता है।

ज़िन्दगी की ये उमस ख़त्म यकीनन होगी
साल भर तक भी तो पतझर न कहीं होता है।

दिल को हाथों में लिए घूम रहे हैं क़ातिल
उनकी नज़रों में वह रहबर न कहीं होता है।

क्या कहूँ ओंठ सिले हैं न खुले अब "किंकर"
ऐसा मज़दूर दिवस पर न कहीं होता है।