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मुझ से पहली सी / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग

मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां<ref>प्रकाशमान</ref> है हयात<ref>जीवन</ref>
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर<ref>सांसारिक चिंताएँ</ref> का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम<ref>दुनिया</ref> में बहारों को सबात<ref>स्थायित्व</ref>
तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ<ref>तक़दीर सिर झुका ले</ref> हो जाये
यूँ न था, मैने फ़क़त<ref>केवल</ref> चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें<ref>सुख</ref> और भी हैं वस्ल<ref>मिलन</ref> की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों से तरीक़ बहीमाना तिलिस्म<ref>प्राचीन अज्ञानपूर्ण अंधविश्वास रूपी तिलिस्म</ref>
रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाये हुए<ref>एक प्रकार के कीमती वस्त्र</ref>
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ए-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून मे नहलाये हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों<ref>शरीर रूपी तंदूर से रोग के कारण निकले हुए </ref> से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों<ref>घाव</ref> से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश<ref>आकर्षक</ref> है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल<ref>मिलन</ref> की रहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग

शब्दार्थ
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