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मुट्ठियों में भींच जो भूगोल डाले / विमल राजस्थानी

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ठोकरों में ठीकरों-सा जो उछाले
मसल चुटकी में समग्र खगोल डाले
आज ऐसा वीर हमको चाहिए जो
मुट्ठियों में भींच यह भूगोल डाले

आँख में जो डाल उँगली कह सके-
ओ रे विधाता ! देख तेरी-
सृष्टि को मुझको मिटाते-
लग रही है एक पल को भी न देरी

सृष्टि यह जो वंचनाओं पर टिकी है
मत्त-मन विष-वह्नि-लपटों पर झुकी है
न्याय की उड़ती यहाँ पर धज्जियाँ हैं
घर नहीं है, तक्षकों की बाँबियाँ हैं

धर्म तो बस पोथियों में रह गया है
अनय के तूफान में ढह-बह गया है
स्वयं में हर आदमी सिमटा हुआ है
मनुजता की लाश से चिपटा हुआ है

आज भूतल पर नहीं है एक भी नर
काल का जो मानता हो रंच भी डर
खोखली सब प्रार्थनाएँ हैं भुलावा
शंख-ध्वनियाँ व्यर्थ, स्तुति है छलावा

टेक घुटने खीष्ट को हम छल रहे हैं
इन अजानों से सितारे जल रहे हैं
है कहाँ इन्सानियत जो धर्म ठहरे
आदमी हैवान, अंधे, कुटिल, बहरे

हैं बमों से लैश गिरजों के कँगूरे
घूरती हैं मस्जिदें आँखें तरेरे
मंदिरों के प्राण पापों में बसे हैं
तेग नानक के कलेजों में धँसे हैं

राम आये, कृष्ण आये, बुद्ध आये
और भी जाने न कितने खूब छाये
पाप की फिर जय हुई, फहरी पताका
कब कहर इस पर हुआ बरपा खुदा का

फूलते-फलते यहाँ हैवान देखे
तख्त-ताजो पर जमे शैतान देखे
एक हो तो बात भी कुछ बन सके, पर-
इस सड़े युग में कोई भगवान देखे

जो जहाँ पर है, वहीं पर लूटता है
गिद्ध ज्यों शव पर झपटता, टूटता है
मात्र पैसे के लिए सब नाच है ये
मार कर ठोकर, बिखेरो ! काँच हैं ये

यह पतन तो और अब देखा न जाये
क्यों नहीं फिर सृष्टि को कोई मिटाये
दानवों की सृष्टि रह कर क्या करेगी
रिक्तता यह नर्क की ही तो भरेगी

वीर ऐसा चाहिए क्षय बोल दे जो
मसल चुटकी में समग्र खगोल दे जो
एक पल में फूँक दे ब्रह्माण्ड सारा
धूल-सा पल में उड़ा भूगोल दे जो