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मुट्ठी भर हँसी / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
दूसरों को देते-देते छाया
कहीं खो ने बैठो अपने लिए
दरख़्त के सूखे पत्ते तक
दूसरों को बाँटते-बाँटते
हो न जाओ तुम ख़ाली
जब तक मरोगी अपनों के लिए, वे जिलायेंगे
जब जिओगी अपने लिए, वे मारेंगे
अपनों को संवारने की कोशिश में
बिखर रही हो पारे-सी
उनकी हँसी के लिए
आख़िर तुम क्यों रो रही हो
सबके आँसुओं का ठेका मत लो
बचाकर रखो आँख भर आँसू
मुट्ठी भर हँसी अपने लिए भी।