भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुट्ठी में बंद आकाशगंगा / रूचि भल्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो !
तुमने देखा होगा
रात को घूमते हुए तारों के जंगल में
आसमान को बादलों के प्रिंट का दुपट्टा
ओढ़े देखा होगा
बया की चोंच में दबा तिनका
तरबूज से टपकता रस
रोहू मछली की गोल आँखें देखी होंगी
देखा होगा सागर में छिपा सीप
सीप से निकलता सुच्चा मोती
नन्हे सूरज को बच्चे की उंगली में बँधे
गुब्बारे सा देखा होगा
दवात में तुमने स्याही
स्याही को कलम में देखा होगा
सुनहरे अक्षरों को किताब में छपते
पीले पन्नों पर दर्ज इतिहास भी देखा होगा
ज़िन्दगी को तुमने बेहया के फूल की तरह
मुस्कराते देखा होगा
पर क्या कभी देखा है
अपने भर्राए हुए गले के पानी को
मेरी आँखों के रास्ते बहते हुए
एक रोज़ आना
आकर देखना
तुम्हारे पिघलते दर्द को हथेली में
मैंने सहेज रखा है
नमक की एक डली अपनी मुट्ठी में छुपा रखी है