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मुट्ठी हो गई ढीली / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

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आदमी अकेला घर में या बाहर
कन्दरा में या खुले जंगल में
बैठा हो सरिता तट या पर्वत शिखर पर
उसकी कोई दुनिया नहीं होती

एक उंगली अकेली
चाहे जल हो या शिला
उठा सकती नहीं ऊपर
चला सकती नहीं तलवार
या बम का गोला
न पकड़ सकती लेखनी
न तस्वीर बनाने का बुरुश

पर तने पर जब कस जाता है
टहनियों और पत्तियों का जाल
तब वह बन जाता है व्रक्ष
आंधी पानी को
ललकार ने लायक

इसी तरह हथेली से ऊगती
यह उँगलियाँ पाचों
मुड कर हथेली पर कस जाएँ
तो बन जाती है मुट्ठी
बन जाता है हथोड़ा
एक सिपाही, एक सेना समूची
जल थल और
आकाश का रक्षा कवच

आज कल इस देश की
मुट्ठी ढीली होगई है
उँगलियाँ आज़ाद हैं
न देश है न राष्ट्र
न लेखनी न बुरुश
न तस्वीर का मॉडल
कौन जाने किस नाव को
कहाँ लेजा रहे हैं
उस नाव के केवट॥