भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुद्दतों बाद भी लगता है वो बदला ही नहीं / ओम प्रकाश नदीम
Kavita Kosh से
मुद्दतों बाद भी लगता है वो बदला ही नहीं
वक़्त ने धोया बहुत रंग वो छूटा ही नहीं
जुस्तजू मेरी तेरे पास ही लौट आती है
तुझ सा नायाब कोई दूसरा मिलता ही नहीं
मैं उसे छोड़ के जाऊँ भी तो जाऊँ कैसे
वो कहीं और मुझे छोड़ के जाता ही नहीं
एक मस्ती भरा सैलाब उमड़ आया था
उस तरह फिर वो कभी झूम के बरसा ही नहीं
मैंने सोचा था कि फ़ौरन वो कहेगा सॉरी
वो भी ज़िद्दी था बहुत फ़ोन उठाया ही नहीं
रोज़ मैं अपनी वफ़ा इसमें उड़ेलता हूँ मगर
ये मुहब्बत का घड़ा ऐसा है भरता ही नहीं
अब ये आलम है कि कोई भी बुराई उसकी
कान सुन भी लें मगर ज़हन तो सुनता ही नहीं