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मुद्दत-सी हो गई , गम-ए-दर्द को सम्भाले/पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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मुद्दत-सी हो गई , गम-ए-दर्द को सम्भाले
हमको भी यारो कोई , अपने गले लगाले
हिचकी न थम रही है ,पलकों से निकले आँसू
यादों में हमने इनको , रक्खा हुआ था पाले
तौफीक दे तू मौला ,या एसा निजाम दे- दे
ग़ुरबत में जी रहे जो , उनको मिलें निवाले
हमको कसम तुम्हारी ,कुछ तो यकीन कर लो
हम भी न उफ़ करेंगे , चाहे कोई सताले
"आज़र"करें क्या शिकवा , उनको नहीं है चिंता
अब जी क्या करेंगे , हमको खुदा उठा ले