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मुद्दत हुई कि सैरे-चमन को तरस गये / नासिर काज़मी


मुद्दत हुई कि सैरे-चमन को तरस गये
गुल क्या, गुबारे-बू-ए-समन को तरस गये

हां ऐ सकूते-तिश्नगी-ए-दर्द कुछ तो बोल
कांटे ज़बां के आबे-सुख़न को तरस गये

दिल में कोई सदा है न आंखों में कोई रंग
तँ के रफ़ीक़ सोहबते-तन को तरस गये

इस अहदे-नौ में कद्रे-मताए-वफ़ा नहीं
हम रस्मो-राहे-अहदे-कुहन को तरस गये

मंज़िल की ठंडकों ने लहू सर्द कर दिया
जी सुस्त है कि पांव चुभन को तरस गये

अंधेर है कि जल्व-ए-जानां के बावजूद
कूचे नज़र के एक किरन को तरस गये।