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मुद्राऽलंकार / दीनदयाल गिरि
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कोई सारस नहिं मिलै मदन बान के बीच ।
मीन केतु की कीच फँसि कुन्द भई मति नीच ।।
कुन्द भई मति नीच निवारी जाय नहिं है ।
जुही समग्री स्याम जपा करनाम सही है ।।
जाती दीनदयाल बिमल बेला सब्बोई ।
ताहि चेतकर-बीर धीर बरने सब कोई ।।६६।।
सो नाहीं नर सुघर है जो न भजे श्री रंग ।
पारावार अपार जग बूड़त भौंर कुसंग ।।
बूड़त भौंर कुसंग ठौर ता महि नहिं पावै ।
सीसहु देत डुबाय भलो हाथहुँ न उठावै ।।
बरनै दीनदयाल रूप हरि को तिहि माहीं ।
ध्यान धरै दृढ़ नाव जानि बूड़त सो नाहीं ।। ६७।।