भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुनिया की किस्मत / शैलजा सक्सेना
Kavita Kosh से
गली के कोने वाली झोपडी के
दरवाज़े से झाँकती है मुनिया!
आँखों से सड़क पर बिछा लेती है अपने लिये रास्ते
जो दूर वाले बाग तक चले जाते हैं उछलते-कूदते,
पेड़ों पर टाँग आती है वह अपने सपनों की पोटलियाँ,
जो रात में चमकती हैं जुगनुओं जैसे,
फिर चाँद आता उसके सपनों के साथ खेलने
और खेल-खेल में
दबा देता उन्हें आकाश-गंगा के किनारे
रेत के घरौंदों में!
दरवाज़े की देहरी पर बैठे-बैठे ही सोच लेती है मुनिया
कि उसके सपने
उतर आये हैं उसके पास फिर सूरज की किरणों के साथ!
वो धूप के अक्षरों को
अपनी हथेली में भर कर,
मलती है अपने माथे पर,
हर रोज़
ताकि उजली हो जायें सारी रेखायें!
तब शायद माँ नहीं कहेगी
कि काली किस्मत ले कर पैदा हुई है वह!