मुन्ना के मुक्तक-1 / मुन्ना पाण्डेय 'बनारसी'
वक़्त अपनी मौज में चलता रहा, महफ़िलों में जाम भी ढलते रहे।
हम शिकायत का पुलिंदा बाँधकर, बेवजह ही आप से जलते रहे।
भूल हो चाहे किसी की सोच लो, वक़्त का ये कारवाँ रुकता नहीं-
धूल चेहरे पर जमी थी दोस्तो! हम तो केवल आइना मलते रहे।
समय ही मोड़ देता है, मुक़द्दर की कहानी में।
नजाकत रोकने से भी, नहीं रुकती जवानी में।
अचानक कुछ नहीं होता, है पहले से मुक़र्रर सब-
कभी कश्ती में पानी है, कभी कश्ती है पानी में।
तेरी मेरी प्रेम कहानी-तू जाने या मैं जानूँ।
कैसी होती प्रीत निभानी, तू जाने या मैं जानूँ।
आग के दरिया में बह जाना सबके बस की बात नहीं-
मैं हूँ पागल, तू दीवानी, तू जाने या मैं जानूँ।
अंगारों की आँच में जलकर जीना कितना मुश्किल है।
लाखों टुकड़े दिल के हों तो सीना कितना मुश्किल है।
गै़रों की कुछ बात नहीं है, अपने ही जब घात करें-
जीवन होता विष का प्याला, पीना कितना मुश्किल है।
कोई पत्ता बिना मर्जी के उसके हिल नहीं सकता।
कभी तकदीर से ज़्यादा किसी को मिल नहीं सकता।
बहारें लाख दस्तक दें तुम्हारे दर पर आ करके-
इजाज़त के बिना उसके कोई गुल खिल नहीं सकता।
पीर के ऊँचे पहाड़ों में गलन होने लगी।
देख कर अट्टालिकाओं को जलन होने लगी।
चंद झोंके झोपड़ों की ओर क्या मुड़ने लगे-
कह रहे हैं अब हवा भी बदचलन होने लगी।
अस्त होने जा रहा जो भोर का तारा हूँ मैं।
रिस चुकी जिसकी हवा वह एक गुब्बारा हूँ मैं।
पास मैं रखता नहीं कुछ, सब लुटाकर जाऊँगा-
काम है अपना बरसना मेघ आवारा हूँ मैं।