मुन्नीबाई / धीरज श्रीवास्तव
बीत चला है पूरा जीवन,निकला कुछ भी सार नह़ीं।
किसको दर्द सुनाये अब वो कोई भी तैयार नहीं।
छम - छम करते घुँघरू उसके
दीवाना कर जाते थे !
सुरमे वाली अँखियों में बस
डूब सभी मर जाते थे !
पर यौवन मुरझाया अब तो,नजरों में है धार नहीं।
बीत चला है पूरा जीवन निकला कुछ भी सार नह़ी।
दासी थी कल तलक जवानी
जाने कितने शीश झुके !
पुलिस, दरोगा नेता,वेता
सभी शहर के ईश झुके !
तोड़ा है पर सबने नाता,अब जग का व्यवहार नह़ीं।
बीत चला है पूरा जीवन निकला कुछ भी सार नहीं।
जूझ रही है ग़म से अपने
बीमारी ने घेरा है !
मीत बनी हैं काली रातें
दिखता नहीं सवेरा है !
जीवन नैया डूब रही है,कोई भी पतवार नहीं।
बीत चला है पूरा जीवन,निकला कुछ भी सार नहीं।
जार- जार मन रोता उसका
अब आता सरपंच नहीं !
बातें किसे सुनाये दिल की
कोई भी तो मंच नहीं !
कष्ट लिखे जो आकर उसका ऐसा है अखबार नहीं।
बीत चला है पूरा जीवन निकला कुछ भी सार नहीं।
याद कर रही बीती बातें
बालों को है नोच रही !
बदबू वाले कमरे में है
मुन्नीबाई सोच रही !
बदहाली,बदनामी तो है सिर्फ मिला बस प्यार नह़ी।
बीत चुका है पूरा जीवन निकला कुछ भी सार नह़ी।