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मुफ़लिसी सब बहार खोती है / वली दक्कनी
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मुफ़लिसी सब बहार खोती है
मर्द का ऎतबार खोती है
क्योंके हासिल हो मुझको जमईय्यत*---------सुकून, क़रार
ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है
हर सहर* शोख़ की निगह की शराब---------सुबह, सवेरे
मुझ अंखाँ का ख़ुमार खोती है
क्योंके मिलना सनम का तर्क* करूँ---------छोड़ना
दिलबरी इख़्तियार खोती है
ऎ वली आब* उस परीरू* की---चमक, परी जैसे मुखड़े वाली
मुझ सिने का ग़ुबार खोती है