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मुफ़्त का कंबल चाहिए / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
Kavita Kosh से
अभिशापों
से मैं बहुत
अभिशप्त हुई
पर मेरी
मुक्ति न हुई।
हर सुबह
मेरे हाथ
अखबार की
काली स्याही
में डूबकर
खून से लथपथ
क्यों निकलते हैं!
आज हर घर
सरहद बन गया है
मिट्टी और बालू
का रंग
बदरंग हो गया है।
ऊपर उठने को
क्यों संबल चाहिए...
मुफ्त का
कंबल चाहिए...।