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मुरगा और सूरज / श्रीप्रसाद

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अक्कड़-बक्कड़ बंबे भो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ-सौ बार यही देखा है
मुरगा बाँग लगाता जब
पूरब में मुसकाता सूरज
धीरे-धीरे आता तब।

इसी बात से लगा सोचने
मुरगा, सूरज लाता मैं
बाँग लगाकर रोज सुबह
इस सूरज को चमकाता मैं
और बात फिर सोची उसने
कल सोऊँगा जी भरकर
बाँग नहीं दूँगा मैं तड़के
सूरज आएगा क्योंकर।

मुरगा सोया पागल जैसा
सूरज आया ठीक समय
रंगरँगीले फूल खिल गए
गूँज उठी चिड़ियों की लय
जब देरी कर मुरगा जागा

देखा, सूरज था ऊपर
अपने-अपने कामों में सब
लगे हुए थे इधर-उधर
तब से कभी न फिर गलती की
मुरगा बाँग लगाता है
और तभी पूरब में सूरज
हँसता खिलता आता है।