मुरली की तान / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कहलाते हैं हिंदू-बालक, बनते हैं हिंदू-कुल-काल;
हैं भारत-ललना से लालित, किंतु हैं न भारत के लाल।
रोम-रोम है देश-प्रेममय, रखते हैं न जाति से प्यार;
राजनीति के अनुपम नेता, पर कुनीति के हैं अवतार।
हैं कल-हंस, चाल बक की-सी, हैं कल-कंठ, किंतु हैं काक;
हैं कमनीय कुसुम-से कोमल, किंतु अकोमलता-परिपाक।
हैं गज-दंत-समान द्विविधा गति, सुमन-माल-सज्जित हैं नाग;
विष-परिपूरित कनक-कुंभ हैं, वधिक-विपंची के हैं राग।
हिंदू ललना, लाल लालसा पर अपनी देते हैं वार;
है काढ़ता कलेजा निजता-प्रियता का नेतापन प्यार।
बात रहे, हठ रहे, रसातल जाय भले ही हिंदू-जाति;
वह खोवे सर्वस्व, किंतु हो मलिन न उनकी निर्मल ख्याति।
पर पग रज कर वहन झोंकते हिंदू आँखों में हैं धूल;
हैं जिसकी छाया में जीवित, हैं उसको करते निर्मूल।
आग लगाता है निज घर में उनका परम निराला नेह;
होती सिंचित कीर्ति-लता है बरसे जाति-रुधिर का मेह।
आकुल हूँ, है हृदय व्यथित अति कुल-कमलों की गति अवलोक;
कैसे होगा दूर निविड़ तम, क्यों आलोकित होगा लोक।
मनमोहन, विमोह सब हर लो, गा दो जन-मन-मोहन गान;
समय देख सुर-लीन बना लो, फिर छेड़ो मुरली की तान।