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मुरली गति बिपरीत कराई / सूरदास

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राग पूर्वी

मुरली गति बिपरीत कराई।
तिहुं भुवन भरि नाद समान्यौ राधारमन बजाई॥
बछरा थन नाहीं मुख परसत, चरत नहीं तृन धेनु।
जमुना उलटी धार चली बहि, पवन थकित सुनि बेनु॥
बिह्वल भये नाहिं सुधि काहू, सूर गंध्रब नर-नारि।
सूरदास, सब चकित जहां तहं ब्रजजुवतिन सुखकारि॥


भावार्थ :- मुरली नाद ने समस्त संसार पर अपना अधिकार जमा लिया है। दुनिया मानो उसके इशारे पर नाच रही है। तीनों लोकों में वंशी की ही ध्वनि भर गई है सब चित्रलिखे-से दिखाई देते हैं। बछड़ा अपनी मां के थन को छूता भी नहीं। गौएं मुंह में तृण भी नहीं दबातीं। और जमुना, वह तो आज उलटी बह रही है। पवन की भी चंचलता रुक गई है। वह भी ध्यानस्थ हो मुरली-नाद में मस्त हो रही है। सभी बेसुध हैं।देव और गन्धर्व तक प्रेम-विह्वल है फिर नर-नारियों का तो कहना ही क्या ?


शब्दार्थ :- गति = संसार की चाल। बिपरीत = उलटी। परसत =छूते हैं, लगाते हैं। गंध्रब = गंधर्व। चकित =स्तम्भित, जहां-तहं चित्र-लिखे से।