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मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - ३७

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बासी मत होने देना अंतर अनुराग सुमन मधुकर
नाव खोल देना भेजेगा वह अनुकूल पवन निर्झर
प्राण झरोखे बैठा तेरा प्रियतम प्रीति प्रदीप जला
टेर रहा संयोगसर्जिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।181।।

द्वार द्वार के अपमानित को नृपति बना देता मधुकर
पथ में पड़ी तिरष्कृत रज को कर देता दिनमणि निर्झर
मुक्त वासना के सागर में प्रस्फुट करता प्रेम कमल
टेर रहा है रूपान्तरणी मुरली तेरा मुरलीधर।।182।।

तेरी ही वाणी में विह्वल वह बोला करता मधुकर
तेरे ही उर पर कपोल रख वह सोता रहता निर्झर
तेरी ही श्वांसों में अपनी प्रणयी श्वाँसें मिला मिला
टेर रहा है नित्यसंगिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।183।।

बिना किसी आशा प्रत्याशा के जैसे तटिनी मधुकर
अंतहीन जलनिधि के उर में होती लीन शून्य निर्झर
वैसे ही प्रिय बीच समा जा महाकाश का आवाहन
टेर रहा है कलामालिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।184।।

वह अनन्त निर्बाध प्रेम का वृन्दावनचारी मधुकर
अद्भुत वह प्रसुप्त निर्गुण को करता गुणकारी निर्झर
बॅंध जाता है आलिंगन के ऊष्मालोड़न में लटपट
टेर रहा है प्रीतिपताका मुरली तेरा मुरलीधर।।185।।